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दुरसा आढ़ा - हिंदूवादी प्रथम राष्ट्रभक्त कवि |
हिंदूवादी प्रथम राष्ट्रभक्त कवि - जिसने अकबर के सामने राणा प्रताप की प्रशंसा और अकबर की निंदा की.
वर्णित चित्र राजस्थानी कवि दुरसा आढा की धातु प्रतिमा है जो माउंट आबू के अचलेश्वर शिव मंदिर में स्थापित है जो संभवतः भारत के प्रथम राष्ट्रभक्त भाषा कवि थे । ये अकबर के दरबार में होते हुए भी उसके मुंह पर महाराणा प्रताप की प्रशंसा करते थे .स्वयं अकबर भी इनकी निर्भीकता का सम्मान करता था एवं इनका अत्यंत आदर करता था . जब महाराणा प्रताप के निधन का समाचार अकबर को प्राप्त हुआ तो उसे अत्यंत विस्मय और दुःख हुआ और उसने अपनी जीभ दांतो तले दबाई और उसके आंसू बह निकले और उसने गहरा निश्वास खींचा . धन्य हैं ऐसे वीर जिनकी मृत्यु पर शत्रु भी आंसू बहाएं . इस अवसर पर उसी समय अकबर की दशा का आँखों देखा वर्णन दुरसा आढा ने इस छंद में किया जो आज तक प्रसिद्ध है.
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अण नामी।
गो आड़ा गवड़ाय जिको बहतो धुर बामी।
नवरोजा नह गयो न गो आतशा नवल्ली।
न गो झरोखा हेठ जासु दुनिया ज दहल्ली।
गहलोत जीतो गयो ,नयन मूँद रसना डसी।
नीसास मूक भरिया नयन ,तो मृत साह प्रतापसी।
इसका अर्थ इस प्रकार है
( वह राणा प्रताप जो अपने घोड़ो पर शाही नीला दाग लगाए बिना ही गया ,जो हमेशा अपने शत्रुओं की निंदा भरे गीत गवाता ही गया , वह जो हमेशा विपरीत दिशा में ही चलता रहा , वह कभी शाही नवरोज उत्सव में नहीं हाजिर हुआ ,कभी शाही झरोखों के नीचे आया जिनसे सारी दुनिया दहलती थी , वह गहलोत राणा प्रताप जीतकर जीता ही चला गया ,उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर बादशाह अकबर ने गहरा निश्वास छोड़ा और एकदम मौन हो उठा ,उसकी आँखों में अश्रु छलछला उठे , क्या वास्तव में राणा प्रताप नहीं रहे।
महाराणा प्रताप विषयक दुरसा आढा की रचना "विरद छिहत्तरी "के दोहे इतिहास प्रसिद्व हैं जो राणा प्रताप को अकबर की तुलना में श्रेष्ट ठहराते हैं और दुरसा ने अकबर के सामने भी प्रस्तुत करने की निर्भीकता दिखाई .
अकबर किना याद, हिन्दु नॄप हाजर हुआ ;
मेद पाट मरजाद, पोहो न आव्यो प्रतापसीं. (६)
(अकबर के बुलाने पर सब हिन्दू राजा हाजिर हो गए पर मेवाड़ की मर्यादा का रक्षक राणा प्रताप उसके आधीन नहीं हुआ )
चितवे चित चितोड, चित चिंता चिता जले ;
मेवाडो जग मोड, पुण्य घन प्रतापसीं. (१०)
(चित्तौड़ का चित्त चिंता की चिता में जल रहा था पर जगत के सिरताज राणा का पुण्य उसके लिए बादल बनकर बरसा )
सांगो धरम सहाय, बाबर सु भिडीयो बहस ;
अकबर पगमां आय, पडे न राण प्रतापसी. (११)
(जैसे उनके पितामह राणा सांगा ने धर्म का सहारा लेकर बाबर से टक्कर ली ठीक वैसे ही राणा प्रताप कभी अकबर की चरण वंदना नहीं की . )
अकबर कुटिल अनित, और बटल सिर आदरे ;
रघुकुल उतम रीत, पाले राण प्रतापसी. (१२)
( अकबर की कुटिलताएं करता है जिसको अन्य राजा सर पर धारण करते हैं पर राणा ओरताप रघुकुल की उत्तम रीति कही पालन करता है )
लोपे हिन्दु लाज, सगपण रों के तुरक सु ;
आर्य कुल री आज, पुंजी राण प्रतापसीं. (१३)
( आज तुर्कों के कारन हिन्दुओं की लज्जा जा रही है पर राणा आज भी आर्य कुल की पूँजी बनकर खड़ा है)
सुख हित शिंयाळ समाज, हिन्दु अकबर वश हुआ ;
रोशिलो मॄगराज, परवश रहे न प्रतापसी. (१४)
( अपने सुख के लिए सियार हिन्दू राजा अकबर के अधीन हो गए पर क्रुद्ध सिंह के समान परताप कभी पराधीन नहीं रहता)
अकबर पत्थर अनेक, भुपत कैं भेळा कर्या ;
हाथ न आवे हेक, पारस राण प्रतापसीं. (१६)
( अकबर ने पथ्थर के समान कई हिन्दू राजाओं को इकठ्ठा किया पर वह पारस पथ्थर राणा प्रताप तो उसके हाथ नहीं लगा )
अकबर नीर अथाह, तह डुब्या हिन्दु तुरक ;
मेंवाडो तिण मांह, पोयण राण प्रतापसीं. (१७)
( अकबर अथाह समुद्र के समान है जिसमें सब हिन्दू राजा डूब गए पर कमल के समान राणा प्रताप उसके ऊपर तैरता रहा )
अकबर है अंगार, जाळे हिन्दु नृप जले ;
माथे मेघ मल्हार, प्राछट दिये प्रतापसीं. (२३)
( अकबर रुपी अग्नि ने सब हिन्दू राजाओं को भस्म कर दिया पर इस प्रताप रुपी घन वृष्टि ने बुझा दिया)
रोक अकबर राह, ले हिन्दुं कुकर लखां ;
विभरतो वराह, पाडे घणा प्रतापसीं. (४३)
( अकबर लाखों श्वान समान हिन्दू राजाओं को साथ लेकर राणा प्रताप का रास्ता रोकता है पर वराह के समान राणा उनको धराशायी कर रहा है)
देखे अकबर दुर, घेरा दे दुश्मन घणा ;
सांगाहर रण सुर, पेड न खसे प्रतापसीं. (४४)
(अकबर राणा को घेरने के कई यत्न करता है पर सांगा का पौत्र राणा प्रताप एक पैण्ड भी नहीं खिसकता )
अकबर दुरग अनेक, फते किया नीज फौज सु ;
अचल चले न एक, पाधर राण प्रतापसीं. (४६)
(अकबर ने अपनी फ़ौज से कई दुर्ग जीते पर राणा प्रताप रुपी पहाड़ जरा भी नहीं हिलता )
बंध्यो अकबर बेर, रसत घेर रोके रीपुं ;
कन्द मुल फल केर, पावे राण प्रतापसीं. (५१)
( अकबर ने राणा की रसद रोक दी पर राणा कांड मूल कैर फल खाकर भी संघर्षरत है )
अकबर जतन अपार, रात दिवस रोके करे ;
पंगी समदा पार, पुगी राण प्रतापसीं. (६१)
( अकबर राणा की कीर्ति को कई यत्न करता है पर उसकी कीर्ति सात समुद्र पार फ़ैल गयी है)
अकबर जासी आप, दिल्ली पासी दुसरा ;
पुनरासी प्रताप, सुजन जीसी सुरमा. (६५)
(समय की बात है अकबर जैसे चले जायेंगे और दिल्ली दूसरों की हो जाएगी पर राणा प्रताप का सुयश सदा अमर रहेगा)
अंतिम येह उपाय, विसंभर न विसारीये ;
साथे धरम सहाय, पल पल राण प्रतापसीं. (६९)
(यही सत्य है ,कभी ईश्वर और धर्म को मत भुलाओ ,राणा ने धर्म को नहीं भुलाया तो धर्म ने सदा उसकी सहायता की)
चारण वरण चितार, कारण लख महिमा करी ;
धारण कीजे धार, परम उदार प्रतापसीं. (७४)
( इस चारण कवि दुरसा ने राणा प्रताप की महिमा का कथन किया है जिसमें परम उदार राणा को ह्रदय में रखा है.
मैंने बिना स्वार्थ के राणा प्रताप की सच्ची प्रशस्ति में यह काव्य रचा है )
अलख धणी आदेश, धरमाधार दया निधे,
बरणो सुजस बेस, पालक धरम प्रतापरो. (१)
गिर उंचो गिरनार, आबु गिर ओछो नही ;
अकबर अघ अंबार, पुण्य अंबार प्रतापसीं. (२)
वुहा वडेरा वाट, वाट तिकण वेहणो विसद ;
खाग, त्याग, खत्र वाट, पाले राण प्रतापसीं. (३)
अकबर गर्व न आण, हिन्दु सब चाकर हुआ ;
दिठो कोय दहिवाण, करतो लटकां कठहडे. (४)
मन अकबर मजबूत, फुट हिन्दुआ बेफिकर ;
काफर कोम कपूत, पकडो राण प्रतापसीं. (५)
अकबर किना याद, हिन्दु नॄप हाजर हुआ ;
मेद पाट मरजाद, पोहो न आव्यो प्रतापसीं. (६)
मलेच्छां आगळ माथ, नमे नही नर नाथरो,
सो करतब समराथ, पाले राण प्रतापसी. (७)
कलजुग चले न कार, अकबर मन आंजस युंही ;
सतजुग सम संसार, प्रगट राण प्रतापसीं. (८)
कदे न नमावे कंध, अकबर ढिग आवेने ओ ;
सुरज वंश संबंध, पाले राण प्रतापसी. (९)
चितवे चित चितोड, चित चिंता चिता जले ;
मेवाडो जग मोड, पुण्य घन प्रतापसीं. (१०)
सांगो धरम सहाय, बाबर सु भिडीयो बहस ;
अकबर पगमां आय, पडे न राण प्रतापसी. (११)
अकबर कुटिल अनित, और बटल सिर आदरे ;
रघुकुल उतम रीत, पाले राण प्रतापसी. (१२)
लोपे हिन्दु लाज, सगपण रों के तुरक सु ;
आर्य कुल री आज, पुंजी राण प्रतापसीं. (१३)
सुख हित शिंयाळ समाज, हिन्दु अकबर वश हुआ ;
रोशिलो मॄगराज, परवश रहे न प्रतापसी. (१४)
अकबर फुट अजाण, हिया फुट छोडे न हठ ;
पगां न लागळ पाण, पण धर राण प्रतापसीं. (१५)
अकबर पत्थर अनेक, भुपत कैं भेळा कर्या ;
हाथ न आवे हेक, पारस राण प्रतापसीं. (१६)
अकबर नीर अथाह, तह डुब्या हिन्दु तुरक ;
मेंवाडो तिण मांह, पोयण राण प्रतापसीं. (१७)
जाणे अकबर जोर, तो पण ताणे तोर तीड ;
आ बदलाय छे ओर, प्रीसणा खोर प्रतापसीं. (१८)
अकबर हिये उचाट, रात दिवस लागो रहे ;
रजवट वट सम्राट, पाटप राण प्रतापसीं. (१९)
अकबर घोर अंधार, उंघांणां हिन्दु अवर ;
जाग्यो जगदाधार, पहोरे राण प्रतापसीं. (२०)
अकबरीये एकार, दागल कैं सारी दणी ;
अण दागल असवार, पोहव रह्यो प्रतापसीं. (२१)
अकबर कने अनेक, नम नम निसर्या नरपती ;
अणनम रहियो एक, पणधर राण प्रतापसीं. (२२)
अकबर है अंगार, जाळे हिन्दु नृप जले ;
माथे मेघ मल्हार, प्राछट दिये प्रतापसीं. (२३)
अकबर मारग आठ, जवन रोक राखे जगत ;
परम धरम जस पाठ, पीठीयो राण प्रतापसीं. (२४)
आपेअकबर आण, थाप उथापे ओ थीरा ;
बापे रावल बाण, तापे राण प्रतापसीं. (२५)
है अकबर घर हाण, डाण ग्रहे नीची दिसट ;
तजे न उंची ताण, पौरस राण प्रतापसीं. (२६)
जग जाडा जुहार, अकबर पग चांपे अधिप ;
गौ राखण गुंजार, पिले रदय प्रापसीं. (२७)
अकबर जग उफाण, तंग करण भेजे तुरक ;
राणावत रीढ राण, पह न तजे प्रतापसीं. (२८)
कर खुशामद कुर, किंकर कंजुस कुंकरा ;
दुरस खुशामद दुर, पारख गुणी प्रतापसीं. (२९)
हल्दीघाटी हरोळ, घमंड करण अरी घणा ;
आरण करण अडोल, पहोच्यो राण प्रतापसीं. (३०)
थीर नृप हिन्दुस्तान, ला तरगा मग लोभ लग ;
माता पुंजी मान, पुजे राण प्रतापसीं. (३१)
सेला अरी समान, धारा तिरथ में धसे ;
देव धरम रण दान, पुरट शरीर प्रतापसीं. (३२)
ढग अकबर दल ढाण, अग अग जगडे आथडे ;
मग मग पाडे माण, पग पग राण प्रतापसीं. (३३)
दळ जो दिल्ली हुंत, अकबर चढीयो एकदम ;
राण रसिक रण रूह, पलटे किम प्रतापसीं. (३४)
चित मरण रण चाय, अकबर आधिनी विना ;
पराधिन पद पाय, पुनी न जीवे प्रतापसीं. (३५)
तुरक हिन्दवा ताण, अकबर लागे एकठा ;
राख्यो राणे माण, पाणा बल प्रतापसीं. (३६)
अकबर मच्छ अयाण, पुंछ उछालण बल प्रबल ;
गोहिल वत गहेराण, पाथोनीधी प्रतापसीं. (३७)
गोहिल कुळ धन गाढ, लेवण अकबर लालची ;
कोडी दिये ना काढ, पणधर राण प्रतापसीं. (३८)
नित गुध लावण नीर, कुंभी सम अकबर क्रमे ;
गोहिल राण गंभीर, पण न गुंधले प्रतापसीं. (३९)
अकबर दल अप्रमाण, उदयनेर घेरे अनय ;
खागां बल खुमाण, पेले दलां प्रतापसीं. (४०)
दे बारी सुर द्वार, अकबरशा पडियो असुर ;
लडियो भड ललकार, प्रोलां खोल प्रतापसीं. (४१)
उठे रीड अपार, पींठ लग लागां प्रिस ;
बेढीगार बकार, पेठो नगर प्रतापसीं. (४२)
रोक अकबर राह, ले हिन्दुं कुकर लखां ;
विभरतो वराह, पाडे घणा प्रतापसीं. (४३)
देखे अकबर दुर, घेरा दे दुश्मन घणा ;
सांगाहर रण सुर, पेड न खसे प्रतापसीं. (४४)
अकबर तलके आप, फते करण चारो तरफ ;
पण राणो प्रताप, हाथ न चढे हमीरहर. (४५)
अकबर दुरग अनेक, फते किया नीज फौज सु ;
अचल चले न एक, पाधर राण प्रतापसीं. (४६)
दुविधा अकबर देख, किण विध सु घायल करे ;
पवंगा उपर पेख, पाखर राण प्रतापसीं. (४७)
हिरदे उणा होत, सिर धुणा अकबर सदा ;
दिन दुणा देशोत, पुणा वहे न प्रतापसीं. (४८)
कलपे अकबर काय, गुणी पुगी धर गौडीया ;
मणीधर साबड मांय, पडे न राण प्रतापसीं. (४९)
मही दाबण मेवाड, राड चाड अकबर रचे ;
विषे विसायत वाड, प्रथुल वाड प्रतापसीं. (५०)
बंध्यो अकबर बेर, रसत घेर रोके रीपुं ;
कन्द मुल फल केर, पावे राण प्रतापसीं. (५१)
भागे सागे भोम, अमृत लागे उभरा ;
अकबर तल आराम, पेखे राण प्रतापसीं. (५२)
अकबर जिसा अनेक, आव पडे अनेक अरी ;
असली तजे न एक, पकडी टेक प्रतापसीं. (५३)
लांघण कर लंकाळ, सादुळो भुखो सुवे ;
कुल वट छोड क्रोधाळ, पैड न देत प्रतापसीं. (५४)
अकबर मेगल अच्छ, मांजर दळ घुमे मसत ;
पंचानन पल भच्छ, पट केछडा प्रतापसीं. (५५)
दंतीसळ सु दुर, अकबर आवे एकलो ;
चौडे रण चकचुर, पलमें करे प्रतापसीं. (५६)
चितमें गढ चितोड, राणा रे खटके रयण ;
अकबर पुनरो ओड, पेले दोड प्रतापसीं. (५७)
अकबर करे अफंड, मद प्रचंड मारग मले ;
आरज भाण अखंड, प्रभुता राण प्रतापसीं. (५८)
घट सु औघट घाट, घडीयो अकबर ते घणो ;
ईण चंदन उप्रवाट, परीमल उठी प्रतापसीं. (५९)
बडी विपत सह बीर, बडी किरत खाटी बसु ;
धरम धुरंधर धीर, पौरुष घनो प्रतापसीं. (६०)
अकबर जतन अपार, रात दिवस रोके करे ;
पंगी समदा पार, पुगी राण प्रतापसीं. (६१)
वसुधा कुल विख्यात, समरथ कुल सीसोदिया ;
राणा जसरी रात, प्रगट्यो राण भलां प्रतापसीं.
(६२)
जीणरो जस जग मांही, ईणरो धन जग जीवणो ;
नेडो अपयश नाही,प्रणधर राण प्रतापसीं. (६३)
अजरामर धन एह, जस रह जावे जगतमें ;
दु:ख सुख दोनुं देह, पणीए सुपन प्रतापसीं. (६४)
अकबर जासी आप, दिल्ली पासी दुसरा ;
पुनरासी प्रताप, सुजन जीसी सुरमा. (६५)
सफल जनम सदतार, सफल जोगी सुरमा ;
सफल जोगी भवसार, पुर त्रय प्रभा प्रतापसीं.
(६६)
सारी वात सुजाण, गुण सागर ग्राहक गुणा ;
आयोडो अवसाण, पांतरेयो नह प्रतापसीं. (६७)
छत्रधारी छत्र छांह, धरमधार सोयो धरा ;
बांह ग्रहयारी बांह, प्रत नतजे प्रतापसीं. (६८)
अंतिम येह उपाय, विसंभर न विसारीये ;
साथे धरम सहाय, पल पल राण प्रतापसीं. (६९)
मनरी मनरे मांही, अकबर रहेसी एक ज ;
नरवर करीये नांही, पुरण राण प्रतापसीं. (७०)
अकबर साहत आस, अंब खास जांखे अधम ;
नांखे रदय निसास, पास न राण प्रतापसीं. (७१)
मनमें अकबर मोद, कलमां बिच धारे न कुट ;
सपना में सीसोद, पले न राण प्रतापसीं. (७२)
कहैजो अकबर काह, सेंधव कुंजर सामटा ;
बांसे से तरबांह, पंजर थया प्रतापसीं. (७३)
चारण वरण चितार, कारण लख महिमा करी ;
धारण कीजे धार, परम उदार प्रतापसीं. (७४)
आभा जगत उदार, भारत वरस भवान भुज ;
आतम सम आधार, पृथ्वी राण प्रतापसीं. (७५)
काव्य यथारथ कीध, बिण स्वारथ साची बिरद ;
देह अविचल दिध, पंगी रूप प्रतापसीं. (७६)
जय माँ बायण जय एकलिंग जी
( जय श्री हिंगलाज आवड़ सैंणल करणी इन्द्रेश मॉ )
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