प्रताप सिंह बारहठ

उन के जीवन के बारे में जाने से पुर्व उन के विचार के कुछ शब्द
” में अपनी माँ को चुप कराने के लिए हजारों माँ ओ को नहीं रुला सकता। “
“वीर की मुक्ति समरभूमि में होती है”

“कुँवर प्रतापसिंह बारठ भारतीय इतिहास गगन-पटल पर चमकने वाला एक ऐसा उज्ज्वल नक्षत्र है, जिसने अपने कर्म से न सिर्फ अपने परिवार को, न सिर्फ अपने समाज और जाति को, न केवल राजस्थान को बल्कि पूरे भारत-वर्ष को गौरवान्वित किया था”

जन्म- अमर शहीद कुंवर प्रताप सिंह का जन्म
पिता क्रांतिकारी बारठ केशरी सिंह जी के घर
माता-  कुँवर से 24 मई 1893 को उदयपुर में हुआ।

 प्रताप की शिक्षा
उनकी शिक्षा दयानंद स्कूल जैन बोर्डिंग में हुई थी। अल्पायु में पिताश्री ने बालक प्रताप को अर्जुनलाल सेठी की गोद में सौंप दिया था जिन्होंने उनको मास्टर अमीचंद के पास भेज दिया। अमीचंद ने Rash behari bose से मिलकर प्रताप और उनके साथियों को रेव्योलूशनरी पार्टी में भर्ती करवा दिया और बोस के निर्देशन में बालक प्रताप एक युवा क्रांतिकारी में परिवर्तित हो गया। रासबिहारी बोस ने अपने एक पत्र में लिखा है, “प्रताप को देखा था तो मालूम हुआ कि उसकी आँखों से आग निकल रही है। प्रतापसिंह प्रकृति से ही सिंह था।”

 प्रताप की जिंदगी के कुछ पहलू 
प्रताप ने अपने चाचा जोरावर सिंह के साथ ही अपने शाहपुरा के विशाल प्रासाद को मार्च सन 1914 के तीसरे सप्ताह में अंतिम प्रणाम किया। 31 मार्च को केसरी सिंह के परिवार के समस्त पुरुषों पर वारंट निकले। चाचा भतीजे ढूंढें गए पर कहीं न मिले।
जाने से एक दिन पूर्व प्रताप ने अपनी माता से कहा – “धोती फट गयी, कहीं से तीन रुपये का प्रबंध कर दो, तो धोती ले आऊँ, आज ही चाहिए।” माता के हाथ तो रिक्त थे, इधर उधर प्रयत्न करने पर भी दो रुपये मिले जो पुत्र को दे दिए। प्रताप के लिए माता का दिया हुआ वह अंतिम पाथेय था। बिना कुछ कहे मन ही मन माता को अंतिम प्रणाम कर सायंकाल होते होते वे निकल पड़े। कोटा शहर में पिताजी के एक मित्र के पास पहुंचे, कहा “जो कुछ भी तैयार हो सो ले आओ, भोजन यहीं करूँगा।” भोजन करते समय मित्र ने कहा-
“कुंवर साहब अब क्या इच्छा है ? प्रताप ने कहा शादी करना है। क्या कहते हो, शादी? आज तक स्वीकार नहीं किया और अब इस घोर विपत्ति में शादी? यह क्या सूझी है? हाँ, निश्चय शादी, लग्न भी आ गया है, उसी के लिए जाता हूँ। कहाँ, सब सुन लोगे” यह कहते हुए प्रताप ने जोर से “वंदे मातरम” का नारा लगाया और अद्रश्य हो गए। उसके बाद प्रताप को किसी ने कोटा शहर में नहीं देखा। दूसरे दिन प्रताप घर नहीं लौटे तो वही मित्र माता के पास आये और पिछले दिन की घटना बताई तो माता बोली “ठीक है, परन्तु उसने मुझसे नाहक ही छिपाया, में उसे तिलक करके विदा करती।”


 Sources- samanyagyanedu.in