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जोरावर सिंह बारहठ |
वीर के आजाद विचार
“सर सूखे पंछी उड़े, और ही सर ठहराय। मच्छ कच्छ बिन पच्छ के, कहो राम कित जाय”
जन्म- 12 सितम्बर 1883 इनके पैत्रक गाँव देवखेडा (शाहपुरा) में हुआ था
पिता- क्रष्ण सिंह बारहठ
विशेषता
गौरवर्ण, उर्ध्व ललाट, दीर्घ नेत्र, मुखाकृति फैली हुई, भव्य दाढ़ी सब मिलाकर ठाकुर जोरावर सिंह बारहट का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था।
वीर जोरावर का स्वतंत्रता में योगदान
देशप्रेम, साहस और शौर्य उन्हें वंश परंपरा के रूप में प्राप्त हुआ था। जोधपुर में प्रसिद्ध क्रन्तिकारी भाई बालमुकुन्द से (जिन्हें दिल्ली षड़यंत्र अभियोग में फांसी हुई थी) जो राजकुमारों के शिक्षक थे, उनका संपर्क हुआ। राजकीय सेवा का वैभव पूर्ण जीवन उन्हें क्रांति दल में सम्मिलित होने से नहीं रोक सका। निमाज़ (आरा) के महंत की राजनैतिक हत्याओं में वे सम्मिलित थे, परन्तु वे फरार हो गए। जब रासबिहारी बोस ने लार्ड हार्डिंग्ज़ पर बम फेंक कर “ब्रिटिश अजेय है” इस भावना को समाप्त करने की योजना तैयार की तो इसका जिम्मा जोरावर सिंह व प्रताप सिंह को सौंपा।
दिनांक 23 दिसंबर 1912 वो वीर शहीद का दिन जिसे आज भी भारतवर्ष बड़े आदर के रूप में मानता है
23 दिसंबर 1912 को जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद ( British imperialism) की शक्ति के प्रतीक वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज़ का भव्य जुलूस दिल्ली के चांदनी चौक में पहुंचा तो जोरावर सिंह ने बुर्के से चुपके से हाथ निकाल कर बम फेंक कर वायसराय को रुधिर स्नान करा दिया।
प्रताप सिंह भी उस समय उनके पास थे। इस घटना से अंग्रेजों की दुनिया के सभी गुलाम देशों में राजनैतिक भूकंप आ गया था। भारतवासी ब्रिटिश शासन को वरदान के रूप में स्वीकार करते हैं, इस झूठे प्रचार का भवन ढह गया। जोरावर सिंह, प्रताप सिंह को लेकर दिल्ली से निकल गए। उस दिन से जीवन के अंत तक वीरवर जोरावर सिंह राजस्थान और मालवा के वनाच्छादित पर्वतीय प्रदेशों में अमरदास वैरागी के नाम से फरार अवस्था में भटकते रहे।
17 वर्षो तक वे राजस्थान व मध्यप्रदेश के जंगल-बीहड़ों में भूख प्यास, सर्दी, गर्मी, वर्षा सहते हुए आजादी की अलख जगाते रहे।
इसी दौरान एक बार अंग्रेजों को उनकी भनक लगी तो उन्होंने सीतामऊ के तत्कालीन राजा रामसिंह को आदेश दिया कि वे जोरावर को गिरफ्तार कर उन्हें सुपुर्द कर दे। रामसिंह नहीं चाहते थे कि वे किसी चारण क्रांतिवीर को गिरफ्तार करे अतः उन्होंने गुप्तचर के माध्यम से उन्हें सीतामऊ से बाहर निकल जाने का समाचार कहलवाया इस पर जोरावर ने महाराजा को एक
रहीम का भावपूर्ण दोहा भेजा
सर सूखे पंछी उड़े, और ही सर ठहराय। मच्छ कच्छ बिन पच्छ के, कहो राम कित जाय।।
दोहा पढ रामसिंह की आंखों में आंसू आ गए अब स्वयं उन्होंने जोरावरसिंह बारहठ को कहलवाया कि आप मेरे राज्य में निर्भय रहे।
वीर जोरावर सिँह बारहठ के अन्तिम दिन
इस प्रकार जंगलो में भटकते भटकते भारत मां का यह लाल
दिनांक 17 अक्तूबर 1939 को एकलगढ (मंदसौर) में नारू रोग से जूझते हुए फरारी अवस्था में ही इस नश्वर देह को त्याग परलोक गामी हुआ।
वहीं उनकी स्मृति में बनी एक जीर्ण-शीर्ण छतरी हमारी कृतघ्नता और उनकी वीरता की गाथा गा रही है।
अनेकता में एकता ही इस देश की शान है, इसीलिए मेरा भारत महान है
तिरंगा (Tiranga) हमारा हैं शान- ए-जिंदगी
वतन परस्ती हैं वफ़ा-ए-ज़मी देश के लिए मर मिटना कुबूल हैं हमे अखंड भारत के स्वपन का जूनून हैं हमें..!!
खुशनसीब हैं वो जो वतन पर मिट जाते हैं, मरकर भी वो लोग अमर हो जाते हैं, करता हूँ उन्हें सलाम ए वतन पे मिटने वालों, तुम्हारी हर साँस में तिरंगे का नसीब बसता है
Sources - samanyagyanedu.in
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