⚜️जय श्री करणी सोनल ⚜️
*महात्मा ईश्वर दास जी महाराज जयंती पर हार्दिक शुभकामनाएं*
जयंती के अवसर पर आप सभी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख श्री केलाश कबीर जी की संपादित *पालर* पत्रिका अंक से साभार:-
भक्त शिरोमणि महात्मा ईसरदास का कृतित्व न केवल डिंगळ साहित्य में, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य में विशिष्ट स्थान का अधिकारी है। आपने भक्ति एवं शौर्य निरूपण के क्षेत्र में जो कुछ लिखा है वह गुण और गहराई की दृष्टि से उत्कृष्ट है। भक्ति के क्षेत्र में तो आपने समन्वय के प्रयास द्वारा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरातल पर जो महान कार्य किया है वह वंदनीय है। उनकी भक्ति रचनाओं में यद्यपि ‘हरिरस’ को सर्वाधिक ख्याति मिली है लेकिन मौलिक चिंतन और काव्यत्व की दृष्टि से यदि ‘निंदा-स्तुति’ को कवि की श्रेष्ठ रचना कहा जाय तो अन्यथा नहीं होगा। विद्वानों ने भी इस कृति को न केवल ईसरदास की रचनाओं में बल्कि सम्पूर्ण डिंगळ साहित्य में अनूठा एवं अपूर्व बतलाया है।
नैतिकता, सामाजिक मर्यादा और लोकादर्श की रक्षा के लिए चारण कवि अपनी निर्भीकता और स्पष्टवादिता के लिए सदैव विख्यात रहे हैं। जोधपुर नरेश बखतसिंह के ‘पितृघाती’, जयपुर नरेश मानसिंह को ‘परावलंबी’ तथा जामनगर के दीवान भेरू खवास को ‘गोला’ कहने का साहस चारण कवि ही जुटा पाये हैं। महात्मा ईसरदास ने भी ‘निंदा-स्तुति’ काव्य में इसी प्रकार की निर्भीकता और स्पष्टवादिता का एक अन्य स्वरूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने यह दिखलाया है कि छोटे से छोटा आदमी बड़े से बड़े आदमी को ही नहीं, बल्कि परब्रह्म परमेश्वर को भी उसके अनैतिक तथा मर्यादाहीन कार्याें के लिए स्पष्ट कहने का पूर्ण अधिकारी है। ‘निंदा-स्तुति’ 14 दोहों एवं 327 बियाखरी छंदों में लिखी नाना पुराणों पर आधारित रचना है। इसमें कवि द्वारा पुराणों में वर्णित परब्रह्म एवं उसके अवतारों के लीला-कार्यों पर निंदापूर्ण तिलमिला देने वाली टिप्पणियां की गई है। कवि ने ईश्वर को संसार की सामाजिक मर्यादाओं, लोकादर्शों एवं वैयक्तिक मानवीय मूल्यों की अदालत के कठघरे में खड़ा करके उससे उसके कर्मों का हिसाब पूछा है।
कवि ईसरदास उदात्त एवं स्वस्थ सामाजिक, वैयक्तिक तथा नैतिक मूल्यों के हिमायती एवं आग्रही हैं। अतः वे भगवद-लीला-गान के बहाने, जहां लीला-कर्मों से मूल्यों की अवमाना या सामाजिक संदर्भों में उनका अनौचित्य हुआ, वहां दो टूक बात कहने तथा व्यंग्यपूर्ण चोट करने से नहीं चूके है। ‘निंदा-स्तुति’ में कवि का यह मूल्य-चिंतन प्रत्यक्ष रूप से न होकर परोक्ष रूप से और दो प्रकार से अभिव्यक्त हुआ है। प्रथम, कवि ने जगनियंता ईश्वर से उसके दृष्टि संबंधी विधि-विधानों के विषय में विभिन्न प्रश्न किए हैं। द्वितीय उसी परब्रह्म के अवतारी स्वरूप द्वारा संसार में किए गए विभिन्न कर्मों पर कवि ने टिप्पणी की है। यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि कवि द्वारा किए गए ये प्रश्न और टिप्पणियां किसी दार्शनिक और विद्वान की नहीं, बल्कि एक आम आदमी की हैं। कवि न तो दर्शन की उलझनपूर्ण गहराईयों में उतरता है और न ही विद्वता के थोथे वांगजाल में फसता है। वह तो समाज के नैतिक एवं धार्मिक विधि-निषेधों में बंधे उस आम आदमी का प्रतिनिधि है जो ईश्वरीय-न्याय तथा मूल्य-विघटन से असंतुष्ट है।
‘निंदा-स्तुति’ के प्रारंभ में देवी-वंदना के पश्चात भक्तकवि अपने आराध्य ‘कन्हला सांमी’ से प्रश्नारंभ करता है। सामान्य मूल्य है कि जो निर्माण करता है, वह विध्वस नहीं करता। लेकिन ईश्वर की गति न्यारी है। वह तो सृष्टि को बार-बार बनाता है और मिटाता है। कवि को आश्चर्य है कि जिस संसार को नाशवान तथा सारहीन बतलाया जाता है, उसी संसार के सर्जन और विविध जीवों के जन्म की ‘रामति’ राम बार-बार क्यों रमता है। चार योनियों के विभिन्न जीवों की सर्जना करने वाला ही उन्हें दुख क्यों देता है। कहा जाता है कि कर्मबधन से छूटने पर प्राणी संसार से मुक्त हो जाता है तो फिर उसी कर्मअंकुर को लेकर ईश्वर बार-बार क्यों अवतार लेता है। यदि सभी कर्माें का कत्र्ता और नियंता ईश्वर है और उसकी इच्छा के बिना पता भी नहीं हिलता तो संसार में हिंसा और दुख क्यों है। कवि ईश्वर से पूछता है कि तू पान चरने वाले पशुओं की खाल क्यों खिंचवाता है? गायों का गला क्यों कटवाता है? यदि प्रत्येंक सांस में तू ही समाया है तो चरते मृग-झुण्डों को क्यों मरवाता है? पक्षियों के गले में फांसी क्यों डलवाता है? एक चींटी को मारने पर भी तू एक और तो आंख दिखाता है, जबिक दूसरी ओर तू ही पीपल के वृक्ष कटवाता है, मंदिर ध्वंस करवाता है। क्यों? हे प्रभु!
सत्य कहूंगा तो आपको नहीं रूचेगा, पर अब आप इस खेल से बाज आइए, क्योंकि यह आपकी प्रतिष्ठा-हुरमती के अनुरूप नहीं है। कवि के शब्दों में -
अविगंत तोनु दया न आवै, कविली गाइ रो गलौ कटावै।
क्रिसन तुहिज सह जगत कहावै, बांभण देव किसंु बिहावै।
नाराइण सब भूत निवासी, पंखी म मारौ गलि दे पासी।
हवै हवै करि लंग हिणावौ, पावन कांइ देवल पाडावौ।
लोक तणि हव वेदन लीजौ, कोइ न दिसै थां विणि बीजौ।
धणी हमै रांमति हूं ध्रापौ, सिगला ही नूं मोख समावौ।
जीव सुखी करि अंतरजामी, बाजी सह सां मटि बह नामी।
जुलम मनै करि हुरमती जावै, साच कही तौ नहीं सुहावै।
इसके साथ-साथ सांसारिक दुखों का चिंतन करता हुआ कवि कहता है कि हे प्रभु, जो यमराज तेरा ही कहा करता है, उसके हाथों में तूने लाठी थमा दी जिससे वह सभी को समान रूप से हांकता है। हे ठाकुर, यह तेरा कैसा चाय है कि माता-पिता बैठे हों और संताने संसार से उठ जाती हैं। पहले तू मरवाता है फिर परिजनों से आक्रंद करवाता है। यह कैसी विडंबना है कि तूने जीवन को असत्य और मृत्यु को सत्य को सत्य रूप बनाया है। हे नरहरि तेरा तो एक ही न्या है कि तू सभी जीवों पर अन्याय करता हैं यद्यपि तूने अपने वजीरों को संता सौंपी है, पर अंतिम हुक्म तो तेरा ही चलता है। बेचारे उन कारकूनों का क्या दोष? वास्तव में तो तू ही सर्जक है, तू ही संहारक है। तू ही उठाता है और तू ही गिराता है। कवि लिखता है-
का ईत रंड विधाता किधी, डांग काल रै हाथे दीधी।
ठाकुर न्याव करै जम थारै, मावित बैठा छोरू मारै।
कलि तै जीवन कीधौ काचै, सिरजनहार कियौ म्रित साचै।
करतौ जम सौह थारौ कहीयौ, तौ गुनहां नूं पाछै का ग्रहीयौ।
नरहर पहलो तै किधो न्याई, ऊपर सौह जीवां अन्याई।
मरण वडै कु मरण मारावै, काल पछै आक्रंत करावै।
मम दलि मिरी वजीरां माथे, हुकम मांड तै दीधा हाथे।
कारकुनां रौ दोस नही कै, तळे ताविया अखिल जीव तै।
सिरजै तू तौ जीव संधारै दोस बिना सू लिया दिवारै।
चत्रभुज पैहलौ ऊँचा चाडै, पाछा जाता सको पछाडै।
इस प्रकार कवि ने विभिन रूपों में उस परब्रह्म परमात्मा के तथाकथित न्याय एवं कर्मों को सांसारिक मूल्यों और एक आदमी की सामान्य समझ की कसौटी पर रखा है।
‘निंदा-स्तुति’ में कवि पारिवारिक तथा सामाजिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक एवं चिंतित है। अतः उसने ईश्वर के अवतारीस्वरूप तथा उसके लीला-कार्यों के विषय में अपेक्षाकृत अधिक लिखा है। मानव समाज के निश्चित पारिवारिक मूल्य है। ईश्वर ने मनुष्य रूप में जन्म तो लिया, लेकिन मूल्यों के निर्वाह में उसने प्राय कोताही दिखलाई है। कवि ने ईश्वर के विभिन्न अवतारों का उल्लेख करते हुए उससे उसके द्वारा तोढे गए मूल्यों का हिसाब पूछा है। कवि कहता है-
क्रिसन जोई ताहरी कमाई, लखमण जिसौ तियागियौ भाई।
राम परहरी सीता रांणी, अम आघणे आंमळै आणी।
विसन सुकर री मात विभाडी, आप तणि मा ताणी ऊठाडी।
माता तणा काटीया माथा, हुवै विघन किम थारै हाथां।
अवला मारग थारा एवा, कुबिज्या आयौ कडी करेवा।
मारि कंसासुर सरिखौ मामो, सोग करेवा बैठौ सामो।
बाप जाईया बंधव बेवै, की मारीया परायै केवै।
भूंधर थारै कहा भाई, सबला लेखवै नही सगाई।
मासी गिणै न मानै मामा, करै तिसा पंुहचाडै कामा।
दांणव रामज कहण न देता, तैं धातिया रसातळ तेता।
उक्त छंदो में हम देखते है कि कवि पारिवारिक मूल्यों के प्रति चिंता दिखलाता हुआ पौराणिक कथाओं में निरूपित प्रभु की तथाकथित लीलीओं को मानवीय धरातल पर व्यंग्यपूर्ण चुनौती देता है।
‘निंदा-स्तुति’ काव्य में कवि ने परब्रह्म के मत्स्यावतार से लेकर कृष्णावतार तक के सभी कर्मों का लेखा-जेखा प्रस्तुत किया है। दैत्यों के दलन तथा भक्तों के उद्धार हेतु अवतार लेने वाला ईश्वर कवि ईसरदान के अनुसार न तो राक्षसों से न्याय कर पाया है और न ही भक्तों से । एक ओर वह राक्षसों का वध करके भी उनके प्रति उदार दिखलाई देता है तो दूसरी ओर भक्तों का रक्षक होने पर भी उनके प्रति वह कठोर है। कवि लिखता है कि हे प्रभु, तूने जहां -जहां दैत्यों का वध किया उन स्थानों को तीर्थ बना दिया। तेरी गति कोई नहीं समझ सकता। तपस्या करने वालों को तू जितना फल देता है उससे कहीं ज्यादा विरोध प्रदर्शित करने वालों पर तू रीझता है। दैत्य बिना सेवा के ही सायुज्य मुक्ति पाते है। शत्रुभाव रखने वाले असुरों को तू अपनाता है और उन्हें भक्तों से पहले तारता है। तेरे सेवक तो तेरा गुणगान करते हुए भी कष्ट पाते हैं और राक्षस तुझे गाली देते हुए भी शीघ्र वैकुण्ठ जाते हैं। तू तो उन पर रीझा है जो क्रूर, कपटी और मन से काले हैं और भय से तेरी भक्ति करते है। तेरे कैसे मूल्य है कि तूने युधिष्ठिर से झूठ बुलवाया, युद्धभूमि में निशस्त्र कर्ण को मरवाया, नारद को मोह-माया में फंसाया और हरिश्चंद्र को डोम के घर पानी भरवाया। हे प्रभु! तू तो सदैव विघ्न और वाद से ही प्रसन्न रहता है। कवि आगे लिखता है-
साच कहां हू गाढे सादे, वीठा सदा अछायो वादे।
रहचि अदारै खोहिण रिप रावण, भमियो घरि घरि काणि भजावण।
नारायण तू तो मांणस नांही मन परधान राखियौ माही।
राखसां ताणि वधारै रोटी, किस्न हणु नूं दियै कछोटी।
कैरवां ताणि जड़ां कढावैं, राडां घरै घरै री आवै।
होवती आरड़ भेरड़ हसियौ, विघन हुए मन आणंदवसियौ।
असुरां विद्या सजीवन आपै, सरपां हाथै अंग्रित समापै।
जीवाडै से दईत जलंतौ, पाडै सरवण पांणी पीतौ।
इसी प्रकार कवि ने केवल पुराणों से ही नहीं, बल्कि इस्लाम धर्म संबंधी प्राचीन मान्यताओं को भी यहां प्रस्तुत करते हुए ईश्वरीय अन्याय पक्षपात एवं मूल्यहीनता को विस्तार से प्रस्तुत किया है।
अंत में हम कहेंगे कि आज से लगभग साढें चार सौ वर्ष पहले एक भक्तकवि मानवीय मूल्यों की रक्षार्थ शास्त्रों में वर्णित अपने आराध्य के लीला-कर्मों तथा तत्कालीन धार्मिक मान्याताओं पर इस प्रकार की विद्रोहपूर्ण मार्मिक टिप्पणी करने का साहस करता है यही ईसरदास की महानता है। निस्संदेह कवि ईसरदास अपने इस मूल्य विषयक मौलिक चिंतन के कारण भारतीय भक्ति साहित्य में अद्वितीय हैं।
लेखक:- डॉ भोपाल सिंह राठौड़
👏चारणत्व एवं समाजोत्थानम संकल्पित,
युवा संगठन:🚩ABCG महासभा(युवा)
श्री करणी सोनल कैरियर इंस्टीट्यूट (चारण शक्ति)
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